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यु॒वोर्ऋ॒तं रो॑दसी स॒त्यम॑स्तु म॒हे षु णः॑ सुवि॒ताय॒ प्र भू॑तम्। इ॒दं दि॒वे नमो॑ अग्ने पृथि॒व्यै स॑प॒र्यामि॒ प्रय॑सा॒ यामि॒ रत्न॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuvor ṛtaṁ rodasī satyam astu mahe ṣu ṇaḥ suvitāya pra bhūtam | idaṁ dive namo agne pṛthivyai saparyāmi prayasā yāmi ratnam ||

पद पाठ

यु॒वोः। ऋ॒तम्। रो॒द॒सी॒ इति॑। स॒त्यम्। अ॒स्तु॒। म॒हे। सु। नः॒। सु॒ऽवि॒ताय॑। प्र। भू॒त॒म्। इ॒दम्। दि॒वे। नमः॑। अ॒ग्ने॒। पृ॒थि॒व्यै। स॒प॒र्यामि॑। प्रय॑सा। यामि॑। रत्न॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:54» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् पुरुष राजन् ! (युवोः) आप दोनों स्वामी सेवक के (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी के सदृश (महे) बड़े (सुविताय) ऐश्वर्य के लिये (इदम्) यह (प्र, भूतम्) अत्यन्त (ऋतम्) प्राप्त होने योग्य कारण (सत्यम्) व्यभिचाररहित अर्थात् नहीं विपरीत होनेवाला (रत्नम्) सुवर्ण और हीरा आदि (नः) हम लोगों का (सु, अस्तु) श्रेष्ठ हो और जैसे मैं (पृथिव्यै) भूमि और (दिवे) प्रकाशमान के लिये (नमः) अन्न आदि का (सपर्यामि) सेवन करता और (प्रयसा) प्रयत्न से विजय को (यामि) प्राप्त होता हूँ, वैसे आप दोनों वर्त्ताव कीजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे भूमि और सूर्य सम्पूर्ण संसार का व्यवहार चलाय के लक्ष्मी और अन्न से युक्त करता है, वैसे ही राजा आदि पुरुषों को चाहिये कि प्रयत्न से उत्तम कर्मों का सेवन करके अत्यन्त ऐश्वर्य को प्राप्त होवें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने राजन् युवोर्युवयोः स्वामिसेवकयोः रोदसी इव महे सुयितायेदं प्र भूतमृतं सत्यं रत्नं नः स्वस्तु। यथाऽहं पृथिव्यै दिवे नमः सपर्यामि प्रयसा विजयं यामि तथा युवां वर्त्तेयाथाम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युवोः) स्वामिसेवकयोः (ऋतम्) प्राप्तुं योग्यं कारणम् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (सत्यम्) अव्यभिचारि (अस्तु) (महे) महते (सु) (नः) (सुविताय) ऐश्वर्याय (प्र) (भूतम्) पुष्कलम् (इदम्) (दिवे) प्रकाशमानाय (नमः) अन्नादिकम् (अग्ने) विद्वन् (पृथिव्यै) भूम्यै (सपर्यामि) सेवामि (प्रयसा) प्रयत्नेन (यामि) प्राप्नोमि (रत्नम्) सुवर्णहीरकादिकम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा भूमिसूर्यौ सर्वं जगद्व्यवहारयित्वा श्रीमदन्नवच्च करोति तथैव राजादिभिः पुरुषैः प्रयत्नेन सुकर्माणि सेवित्वा पुष्कलमैश्वर्यं प्राप्तव्यम् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी भूमी व सूर्य संपूर्ण जगाचा व्यवहार चालवून सर्वांना लक्ष्मी व अन्नाने संपन्न करतात तसे राजा इत्यादी लोकांनी प्रयत्नपूर्वक उत्तम कर्मांचे सेवन करून अत्यंत ऐश्वर्य प्राप्त करावे. ॥ ३ ॥